ना शानदार, ना
जानदार...ना जबरजस्त.
बस
खन्न...खन्न...खन्न.
सिस्टम सरीखे पहाड़
पर कंकड़ जैसे दशरथ मांझी के लगातार पड़ती छेनी और हथौड़ी की आवाज ही जेहन में गूंजती
रहती है, हाल से निकलते वक़्त.
वैसे तो मांझी- द
माउंटेन मैन दशरथ मांझी की प्रेम कथा और जिजीविषा का दस्तावेज है मगर फिल्म इससे भी
कहीं गहरे असर करती है. और, नवाज इसे अपने अभिनय से और भी चटक रंग दे देते हैं. फिल्म
के कुछ दृश्यों में तो नवाज ने जान फूंक दी है...जैसे फिल्म का ओपनिंग सीन जिसमे खून
से लथपथ नवाज गल्हौर के पहाड़ को विक्षिप्तों सी चुनौती देते हैं, बीच बीच में पहाड़
से होने वाली नवाज की बातें और झल्लाहट, सरकारी फरमान के ‘सब बराबर’ के चिथड़ों से
कपड़ों में भी बरक़रार दिल्लगी, आश्चर्यमिश्रित ‘ई हमरी मेहरिया है!’ और ‘कब बोले!’
का दृश्य, “तोहरा को एतना चाहते हैं” का दृश्य, “हम पागल हैं, पागल” का दृश्य, पंकज
त्रिपाठी से अपने पैसे की जबाबतलबी का दृश्य, फगुनिया से अपनी विवशता साझा करने का
दृश्य, और ऐसे तमाम और दृश्य जिसमे अभिनय, नवाज में चरम पर है.
फिल्म कहीं कहीं
व्यस्था को बहुत जोर से, नाख़ून गड़ाकर, चुटकी काटती है. जैसे सरकारी फरमान सब बराबर
के घोड़े पर सवार दशरथ को अगले ही पल मुखिया और उसके आदमी जूतों से हकीकत के सामने
खड़ा कर देते हैं...चार कमजोरों ने, बिलकुल आम से लोगों ने पूरे मंच को अपने कन्धों
पर सहारा दे रखा है और बेशर्मी से लोग उस मंच पर सवार हैं, कोई एक भी उस मंच से
उतरने को तत्पर नहीं की गरीब के कंधे का बोझ कम हो जाये...कन्धा हटते ही पूरा मंच
धराशायी हो गया...हो ही जाता है. मदद हो जाने के नाम पर फूलमाला के साथ बस फोटो
खिंच गई, मज़बूरी में ‘इमरजेंसी के खिलाफ जनक्रांति’ छपी चादर ओढ़कर चलने वाले मांझी
को नेताओं की टोली पुलिस और अपने बीच खड़े होने देती है...इंस्पेक्टर का लताड़ना कि ‘इनका
तो काम है फोटो खिचवाना’.
वैसे, चुटकी का असर
खाल की मोटाई पर निर्भर करता है.
केतन मेहता का सिनेमाई
जादू कहीं कहीं कमजोर है जिसकी वजह से फिल्म की फिल्म की रफ़्तार कहीं कहीं कम
ज्यादा हो जाती है मगर कुल मिलकर फिल्म उम्दा सी बन पड़ी है. उम्दा सी इसलिए क्यूंकि
सबकुछ ठीक होने के बाद भी कुछ कसर रह गयी है जैसे दशरथ और फगुनिया के प्रेम को
फतांसी रूप देना. मगर, शायद इसके बिना फिल्म डाक्यूमेंट्री बन कर रह जाती. उस दौर
का बिहार रचने में भी केतन कहीं कहीं चूक गए हैं. इसके अलावा बिहार के उस जगह की
बोली भी किरदारों जुबान से कई जगह चूकी है. इस मामले में बिहारीपने का सोंधापन
सबसे ज्यादा दो किरदारों में दिखाई पड़ता है – एक, वो छोटी बच्ची जिसने दशरथ की बेटी
की बचपन की भूमिका निभाई है और दूसरा वो जिसने दशरथ मांझी के दामाद की भूमिका
निभाई है.
इस फिल्म का जुआ (खेती
वाला) पूरी तरह से नवाज के कन्धों पर है...और, दशरथ मांझी के किरदार के लिए इतनी
सुगमता से कोई और फिट भी ना बैठता. याद नहीं पड़ता कि नवाज की इतनी प्रमुख भूमिका
के साथ कोई और फिल्म आई हो. तिग्मांशु गैंग ऑफ़ वासेपुर के खोल से नहीं निकल पाए और
पंकज त्रिपाठी अपने चिरपरिचित अंदाज से. राधिका आप्टे अचानक से हिंदी सिनेमा में अक्सर
दिखाई दे जाने वाला चेहरा बनती जा रही हैं, और प्रभावित करती हैं. पत्रकार की
भूमिका निभाने वाले कलाकार की बॉडी लैंग्वेज का बदलाव भी अपने आप ही नोटिस में आती
है.
फिल्म उम्दा है, कम से
कम एक बार तो ज़रूर देखनी चाहिए.
रचनाकार- गौरव निगम.