Sunday, August 23, 2015

लघुकथा- चुहिया

थकी हुई अम्मा की आँखों में नींद पूरी तरह से बसने ही वाली थी कि अँधेरे में किरर्र किरर्र की हल्की कर्कश आवाज ने फिर से उनकी आँखे खुलवा दी. कान लगाकर सुनने लगीं अम्मा. “ज़रूर वही छोटी चुहिया होगी जो दिन में भी ओसारे में घूमती फिर रही थी...भूखी गई थी, अब फिर गई...अब इस वक़्त भी क्या मिलेगा इसे...ख़ुद ही फिर भाग जाएगी. हाह.” अम्मा ने सोचा और करवट बदलकर सोने की कोशिश शुरू की तो खाट पर सोयी छुटकी का चेहरा सामने पड़ गया. आज स्कूल से नयी किताबें मिलने के बाद पूरी शाम अँधेरा होने तक उन्ही किताबों से पढ़ती- खेलती छुटकी भी थक कर बेखटक सोई पड़ी पड़ी थी. 
कल से छुटकी नयी किताबें लेकर स्कूल जाएगीअम्मा के सोचों की ट्रेन फिर दौड़ पड़ीमास्टर साहब कह रहे थे कि जो पढने में तेज़ होते हैं उन बच्चों को वजीफ़ा भी मिलता है. अपनी छुटकी भी तो ख़ूब तेज़ है. कैसा झट से सब याद कर लेती है. अब तो किताबें भी गई हैं...किताबें...एं...कहीं चुहिया ने क़िताबें काट दी तो...” अम्मा की नींद पूरी तरह से उचट गई. सर उठाकर अँधेरे में ही इधर उधर निगाह फिराई मगर समझ में नहीं आया कि चुहिया किधर है. कथरी के नीचे से माचिस और अपनी जर्जर चौकी के नीचे से ढिबरी निकाल कर, रौशनी करके भी खोजा. मगर चुहिया ही तो थी, हाथी तो नहीं कि आँख घुमाई और नज़र गई.
हर मुमकिन जगह ढूंढ लिया अम्मा ने. पुराने कपड़ों के नीचे, अनाज के डिब्बों के पीछे...गिनती के जो दो चार बर्तन थे उनको भी बेआवाज हटा कर देख लिया मगर चुहिया ने भी शायद ना दिखने का जंतर सीख कर आई थी.
आखिर में अम्मा ने किवाड़ के नीचे बोरा गोल करके रख दिया और नाबदान पर भी एक ईंट रख दी...किताबों ने अम्मा की कथरी के नीचे करीने से जगह पाई. 
कल सुखराम बढ़ई की चिरौरी कर लुंगी कि छुटकी के किताबों के लिए लकड़ी का छोटा बक्सा जैसा कुछ बना दे...अगली बीस तक काम के पैसे भी मिल जायेंगे तो उसको चुका दूंगीसोच ने नींद को फिर से आँखों में आने का रास्ता दे दिया. छुटकी के साथ साथ अम्मा भी अब निश्चिन्त होकर सो गईं.
रचनाकार- गौरव निगम, लखनऊ. 

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